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वायो॒ तव॑ प्रपृञ्च॒ती धेना॑ जिगाति दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची सोम॑पीतये॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāyo tava prapṛñcatī dhenā jigāti dāśuṣe | urūcī somapītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वायो॒ इति॑। तव॑। प्र॒ऽपृ॒ञ्च॒ती। धेना॑। जि॒गा॒ति॒। दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची। सोम॑ऽपीतये॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:2» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पूर्वोक्त स्तोत्रों का जो श्रवण और उच्चारण का निमित्त है, उसका प्रकाश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (वायो) हे वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर ! (तव) आपकी (प्रपृञ्चती) सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने, और (उरूची) अनेक विद्याओं के प्रयोजनों को प्राप्त करानेहारी (धेना) चार वेदों की वाणी है, सो (सोमपीतये) जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने, तथा (दाशुषे) निष्कपट से प्रीत के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है। दूसरा अर्थ-(वायो तव) इस भौतिक वायु के योग से जो (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारण श्रवण कराने और (उरूची) अनेक पदार्थों की जाननेवाली (धेना) वाणी है, सो (सोमपीतये) संसारी पदार्थों के पान करने योग्य रस को पीने वा (दाशुषे) शब्दोच्चारण श्रवण करनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है॥३॥
भावार्थभाषाः - यहाँ भी श्लेषालङ्कार है। दूसरे मन्त्र में जिस वेदवाणी से परमेश्वर और भौतिक वायु के गुण प्रकाश किये हैं, उसका फल और प्राप्ति इस मन्त्र में प्रकाशित की है अर्थात् प्रथम अर्थ से वेदविद्या और दूसरे से जीवों की वाणी का फल और उसकी प्राप्ति का निमित्त प्रकाश किया है॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ तेषामुक्थानां श्रवणोच्चारणनिमित्तमुपदिश्यते।

अन्वय:

हे वायो परमेश्वर ! भवत्कृपया या तव प्रपृञ्चत्युरूची धेना सा सोमपीतये दाशुषे विदुषे जिगाति। तथा तवास्य वायो प्राणस्य प्रपृञ्चत्युरूची धेना सोमपीतये दाशुषे जीवाय जिगाति॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वायो) वेदवाणीप्रकाशकेश्वर ! (तव) जगदीश्वरस्य (प्रपृञ्चती) प्रकृष्टा चासौ पृञ्चती चार्थसम्बन्धेन सकलविद्यासम्पर्ककारयित्री (धेना) वेदचतुष्टयी वाक्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (जिगाति) प्राप्नोति। जिगातीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) तस्मात्प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (दाशुषे) निष्कपटेन विद्यां दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (उरूची) बह्वीनां पदार्थविद्यानां ज्ञापिका। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (सोमपीतये) सूयन्ते ये पदार्थास्तेषां पीतिः पानं यस्य तस्मै विदुषे मनुष्याय। अत्र सह सुपेति समासः। भौतिकपक्षे त्वयं विशेषः—(वायो) पवनस्य योगेनैव (तव) अस्य (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारणसाधिका (धेना) वाणी (दाशुषे) शब्दोच्चारणकर्त्रे (उरूची) बह्वर्थज्ञापिका। अन्यत्पूर्ववत्॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रापि श्लेषालङ्कारः। द्वितीयमन्त्रे यया वेदवाण्या परमेश्वरभौतिकयोर्गुणः प्रकाशितास्तस्याः फलप्राप्ती अस्मिन्मन्त्रे प्रकाशिते स्तः। अर्थात्प्रथमार्थे वेदविद्या द्वितीये वक्तॄणां जीवानां वाङ्निमित्तं च प्रकाश्यत इति॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - येथे श्लेषालंकार आहे. दुसऱ्या मंत्रात ज्या वेदवाणीद्वारे परमेश्वर व भौतिक वायूचे गुण प्रकट केलेले आहेत त्याचे फळ व प्राप्ती या मंत्रात सांगितलेली आहे. अर्थात प्रथम अर्थ वेदविद्या व दुसरा अर्थ जीवाच्या वाणीचे फळ व त्याच्या प्राप्तीचे निमित्त प्रकट केलेले आहे. ॥ ३ ॥